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निजता बनाम पारदर्शिता

भारतीय चुनावी परिप्रेक्ष्य में एक संवैधानिक विमर्श

निजता बनाम पारदर्शिता : भारतीय चुनावी परिप्रेक्ष्य में एक संवैधानिक विमर्श

भारतीय लोकतंत्र की सफलता का आधार उसकी पारदर्शिता और जन-भागीदारी में निहित है। किंतु हाल के वर्षों में “निजता” (Privacy) को संवैधानिक ढाल बनाकर कई महत्वपूर्ण सूचनाओं को सार्वजनिक करने से रोका गया है। चुनाव आयोग द्वारा वीडियोग्राफी, मतदाता सूची, Form-17C और यहाँ तक कि सार्वजनिक पदधारियों की शैक्षणिक योग्यताओं को भी “निजता” के दायरे में लाने का प्रयास लोकतंत्र की पारदर्शिता पर प्रश्नचिह्न लगाता है।

📌 संवैधानिक आधार

भारतीय संविधान के अनुच्छेद 21 के अंतर्गत निजता को जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अभिन्न अंग माना गया है (K.S. Puttaswamy v. Union of India, 2017, 9-Judge Bench)। किंतु न्यायालय ने यह भी स्पष्ट किया कि निजता कोई पूर्ण अधिकार (absolute right) नहीं है, बल्कि इसे “यथोचित प्रतिबंधों” (reasonable restrictions) के अधीन रखा गया है।

इसके विपरीत, अनुच्छेद 19(1)(a) नागरिकों को सूचना प्राप्ति का अधिकार (Right to Information) देता है, जिसे सर्वोच्च न्यायालय ने State of UP v. Raj Narain (1975) और Union of India v. ADR (2002) में लोकतंत्र का मूलभूत तत्व माना।

इस प्रकार, चुनाव संबंधी सूचनाओं को सार्वजनिक करने का संवैधानिक दायित्व जनहित (Public Interest) और लोकतांत्रिक पारदर्शिता (Democratic Transparency) के अंतर्गत आता है।

📌 न्यायालयीन नज़ीरें

1. PUCL v. Union of India (2003) – मतदाता को प्रत्याशी की आपराधिक पृष्ठभूमि जानने का अधिकार है।
2. Union of India v. ADR (2002) – प्रत्याशी की शैक्षणिक योग्यता और संपत्ति का विवरण सार्वजनिक करना आवश्यक है।
3. K.S. Puttaswamy (2017) – निजता मौलिक अधिकार है, लेकिन इसे “पारदर्शिता और सार्वजनिक जवाबदेही” से संतुलित करना होगा।

इन निर्णयों से स्पष्ट है कि लोकतंत्र में “निजता” को “सार्वजनिक हित” पर हावी नहीं होने दिया जा सकता।

📌 अंतर्राष्ट्रीय दृष्टिकोण

* अमेरिका : मतदाता सूचियाँ सार्वजनिक; पारदर्शिता सर्वोच्च प्राथमिकता।
* ब्रिटेन : Full और Open Register का मॉडल; संतुलन साधा गया।
* यूरोपीय संघ (GDPR) : निजी जीवन की सुरक्षा, लेकिन चुनावी आँकड़े पूर्णत: सार्वजनिक।
* कनाडा : Form-17C जैसे चुनावी आँकड़े सार्वजनिक, जिससे नागरिक स्वयं क्रॉस-चेक कर सकें।

भारत में उल्टा हो रहा है — जहाँ लोकतांत्रिक सूचनाएँ रोकी जा रही हैं और “निजता” को ढाल बनाया जा रहा है।

📌 विश्लेषण

* वीडियोग्राफी : यदि चुनाव आयोग 45 दिन तक रिकॉर्डिंग अपने पास रख सकता है, तो इसे सार्वजनिक करने में निजता का उल्लंघन कैसे?
* मतदाता सूची : नाम और पता जब पेपर लिस्ट में सार्वजनिक हैं, तो मशीन-रीडेबल फॉर्मेट में देने से निजता कैसे भंग?
* Form-17C : इसमें केवल कुल मतदान आँकड़े होते हैं; यहाँ निजता का प्रश्न ही नहीं।
* प्रधानमंत्री की डिग्री : यह व्यक्तिगत नहीं, बल्कि “सार्वजनिक पद की जवाबदेही” का प्रश्न है।

📌 सिफ़ारिशें

1. निजता की परिभाषा स्पष्ट हो – न्यायपालिका को यह निर्धारित करना होगा कि “निजता” किन परिस्थितियों में लागू होगी और किन सार्वजनिक मामलों में नहीं।
2. चुनावी डेटा पारदर्शी हो – मतदाता सूची, मतदान आँकड़े और Form-17C को पूर्णत: सार्वजनिक किया जाए।
3. सार्वजनिक पदों पर निजता सीमित हो – शिक्षा, संपत्ति और अपराध संबंधी विवरण निजता का हिस्सा नहीं माने जाएँ।
4. अंतर्राष्ट्रीय मानकों से सामंजस्य – भारत को पारदर्शिता के वैश्विक मॉडल (US, UK, EU, Canada) से सीखना चाहिए।

📌 निष्कर्षतः भारत में निजता का तर्क यदि लोकतांत्रिक पारदर्शिता को कुचलने का माध्यम बनता है, तो यह न केवल संविधान की मूल भावना के विपरीत है, बल्कि लोकतंत्र के आत्मा-स्वरूप उत्तरदायित्व (Accountability) को भी समाप्त करता है।

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