
“देवरिया सदर तहसील में घूसखोर राजस्व निरीक्षक शैलेश कुमार को 10 हजार रुपये लेते रंगे हाथ गिरफ्तार”
रिपोर्ट राजेश कुमार यादव
देवरिया उत्तर प्रदेश
घटना का विस्तार (विस्तार से)
उत्तर प्रदेश के देवरिया जनपद की सभा तहसील परिसर में, राजस्व निरीक्षक शैलेश कुमार को जमीन की पैमाइश कराने के नाम पर ₹10,000 रुपये रिश्वत लेते हुए एंटी करप्शन टीम (गोरखपुर यूनिट) ने रंगे हाथ दबोचा।
बताया गया है कि यह रिश्वत जुलाई में हरपुर गांव निवासी ज्वाला यादव द्वारा तहसील में पैमाइश के लिए आवेदन करने के बाद मांगी गई थी। हालांकि उच्च अधिकारियों के आदेशों के बावजूद भी शैलेश कुमार ने कार्रवाई टालने की कोशिश की और अंततः पैमाइश के नाम पर रिश्वत मांग ली।
शैलेश कुमार, जो गोरखपुर के सहजनवां थाना क्षेत्र के सहरी गांव के निवासी बताए गए हैं, को तहसील परिसर में ही गिरफ्तार कर लिया गया। इस घटना से तहसील परिसर में हड़कंप मच गया और विश्वसनीयता हेतु एंटी कॉरप्शन टीम अग्रिम कार्रवाई में जुट गई। इस संबंध में मुकदमा भी दर्ज कर लिया गया।
घटना की विस्तृत जानकारी के अनुसार:
राजस्व निरीक्षक शैलेश कुमार को एंटी करप्शन टीम ने तहसील परिसर में ₹10,000 की रिश्वत लेते रंगे हाथ गिरफ्तार किया।
किसान ज्वाला यादव ने आरोप लगाया था कि शैलेश कुमार ने ज़मीन की पैमाइश व फील्ड बुक तैयार करने के एवज में घूस मांगी थी।
ज्वाला यादव ने इसकी शिकायत गोरखपुर एंटी करप्शन यूनिट से की थी, जिनकी योजना के अनुसार शैलेश को रंगे हाथ पकड़ा गया।
गिरफ्तारी के बाद कस्टडी में लेकर आगे की कार्रवाई शुरू कर दी गई है। उनके खिलाफ भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम के तहत मुकदमा दर्ज हुआ है।
तहसील परिसर में हुई इस घटना से प्रशासन में हड़कंप मच गया, और अन्य कर्मचारियों पर भी नजर रखी जा रही है।
भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम, 1988 (Prevention of Corruption Act, 1988) एक भारतीय कानून है जो सरकारी अधिकारियों द्वारा रिश्वत लेने, देने और भ्रष्ट आचरण को रोकने के लिए बनाया गया है।
देवरिया केस में लागू हो सकने वाली मुख्य धाराएं:
1. धारा 7 (Section 7) –
सरकारी कर्मचारी द्वारा अवैध रूप से रिश्वत (घूस) लेने पर लागू होती है। इसमें 3 साल से 7 साल तक की सजा हो सकती है और जुर्माना भी।
2. धारा 13(1)(d) और 13(2) –
यदि अधिकारी अपने पद का दुरुपयोग कर किसी से आर्थिक लाभ लेता है, तो यह ‘आपराधिक कदाचार’ (Criminal Misconduct) माना जाता है। इसमें अधिकतम 7 साल की सजा और जुर्माना हो सकता है।
3. धारा 8/9 (यदि रिश्वत देने वाला भी पकड़ा जाए) –
रिश्वत देने वाले पर भी कार्रवाई हो सकती है, यदि वह जानबूझकर अवैध लेनदेन में शामिल है।
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कार्रवाई कैसे होती है?
1. शिकायत दर्ज: जैसे ज्वाला यादव ने किया।
2. जांच और जाल बिछाना (Trap): एंटी करप्शन टीम सबूत इकट्ठा करती है – जैसे नोटों पर केमिकल लगाना, ऑडियो/वीडियो रिकॉर्डिंग।
3. गिरफ्तारी: रिश्वत लेते हुए रंगे हाथ पकड़ने पर।
4. मुकदमा: विशेष अदालत में केस चलता है।
5. सजा/बरी: कोर्ट के निर्णय के आधार पर हो सकता है।
आपकी इच्छा के अनुसार, नीचे भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम, 1988 (Prevention of Corruption Act, 1988) की कुछ मुख्य धाराओं की मूल प्रति (मूल पाठ) और इन्हें समझने के लिए उदाहरण (वास्तविक मामलों से) दिए गए हैं:
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1. अधिनियम की मूल प्रति (Sections 7 का पाठ)
न्याय व्यवस्था वेबसाइट Indiankanoon पर उपलब्ध:
धारा 7 (Section 7):
> Offence relating to public servant being bribed
(a) कोई भी सरकारी कर्मचारी जो किसी व्यक्ति से किसी सार्वजनिक कर्तव्य को अनुचित या बेईमानी से पूरा करने या ऐसा करने से रोकने के उद्देश्य से कोई असामान्य लाभ लेता या लेने का प्रयास करता है; या
(b) किसी व्यक्ति से किसी कर्तव्य की अनुचित या बेईमानी से पूर्ति करने के एवज़ में कोई असामान्य लाभ लेता है; या
(c) किसी दूसरे सरकारी कर्मचारी से ऐसा कर्तव्य अनुचित रूप से पूरा कराने का कोई प्रयास करता है, यदि वह लाभ स्वीकार करने के परिणामस्वरूप होता है—
तो उसे कम से कम तीन वर्ष से लेकर अधिकतम सात वर्ष की कारावास की सजा और जुर्माना हो सकता है।
(Explanation 1: लाभ लेने का प्रयास ही अपराध है, चाहे कर्तव्य की पूर्ति अनुचित न भी हो।)
Illustration: एक सरकारी कर्मचारी ‘एस’ किसी ऐसे व्यक्ति ‘पी’ से पांच हजार रुपये लेता है ताकि उसका रेशन कार्ड समय पर निकल जाए—यह इस धारा के अंतर्गत अपराध माना जाता है।
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2. उदाहरण – वास्तविक मामले (Actual Cases)
उदाहरण 1: हल्की दर्जे की रिश्वत (Section 7 के अंतर्गत)
लैखपाल (Lekhpāl) का मामला:
अवधेश कुमार सिंह, सारोजिनीनगर में कार्यरत एक लेखपाल, को ₹90,000 की घूस लेते हुए एंटी करप्शन टीम ने जुलाई 2018 में रंगे हाथ पकड़ा। इसमें धारा 7 व धारा 13(1)(d) और 13(2) के तहत चार साल की कठोर सजा और ₹20,000 का जुर्माना हुआ। यदि जुर्माना न भरा गया, तो एक महीने की अतिरिक्त कैद।
उदाहरण 2: पुलिस थाना का रिश्वत मामला (Sections 8 एवं 13)
हेड कांस्टेबल एम.के. मंजन्ना का मामला, बेंगलूरु:
2017 में ₹10,000 की घूस लेते रंगे हाथ पकड़े गए। प्रारंभिक सज़ा चार वर्ष की कठोर कैद और ₹50,000 जुर्माना था, जो उच्च न्यायालय में अपील के बाद भी कायम रही।
डाक्यूमेंटेशन और वॉइस सैंपल द्वारा बचाव को खारिज कर दिया गया।
उदाहरण 3: वरिष्ठ राजनेताओं पर भ्रष्टाचार के गंभीर आरोप
फॉडर घोटाला (Fodder Scam):
यह बिहार का एक विशाल भ्रष्टाचार मामला था, जिसमें राज्य को भारी वित्तीय क्षति हुई। इसमें सीबीआई द्वारा कई वरिष्ठ नेताओं और अधिकारियों के खिलाफ धारा 13(2) समेत दर्ज धाराओं के तहत मुकदमे चले।
सारांश तालिका
बिंदु विवरण
संबंधित धारा धारा 7 – सरकारी कर्मचारी द्वारा रिश्वत लेना
सजा 3–7 वर्ष की कैद + जुर्माना
प्रक्रिया शिकायत → जांच → “trap” → गिरफ्तारी → मुकदमा
मिसालें लेखपाल मामला (₹90,000, 4 वर्ष की सजा); पुलिस हेड कांस्टेबल (₹10,000, 4 वर्ष)।
भारी भ्रष्टाचार फॉडर घोटाला जैसे मामले में उच्च स्तर पर मुकदमे।
नीचे भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम, 1988 (Prevention of Corruption Act, 1988) की धारा 13(1)(d) और 13(2) की मूल प्रति (अंग्रेज़ी में), साथ ही साथ इनके महत्व और व्यावहारिक उदाहरणों के साथ उनकी व्याख्या दी जा रही है।
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§ 13(1)(d) – Criminal Misconduct by a Public Servant: मूल पाठ
Section 13(1)(d):
A public servant is said to commit the offence of criminal misconduct, if he—
1. (i) by corrupt or illegal means, obtains for himself or for any other person any valuable thing or pecuniary advantage; or
2. (ii) by abusing his position as a public servant, obtains for himself or for any other person any valuable thing or pecuniary advantage; or
3. (iii) while holding office as a public servant, obtains for any person any valuable thing or pecuniary advantage without any public interest; or
…
यहां तीन विकल्प (i), (ii) और (iii) स्वतंत्र (disjunctive) हैं — अर्थात, इनमें से केवल एक उल्लंघन को प्रमाणित करना ही अपराध सिद्ध करने के लिए पर्याप्त होता है .
व्याख्या (Interpretation):
Clause (i): रिश्वत या अवैध तरीके से लाभ लेना।
Clause (ii): अपने पद का दुरुपयोग करके लाभ प्राप्त करना।
Clause (iii): लाभ लेना, भले ही वह सीधे अधिकारी का न हो, लेकिन उसमे सार्वजनिक हित का अभाव हो — जैसे किसी बाहरी व्यक्ति को लाभ पहुंचाना केवल निजी स्वार्थ में।
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§ 13(2) – दंड की सीमा
Section 13(2):
यदि कोई सार्वजनिक अधिकारी इस प्रकार का अपराध करता है, तो उसे कम से कम एक साल की सजा, लेकिन ज्यादा से ज्यादा 7 साल तक की जेल की सजा और जुर्माना भी हो सकता है।
(संशोधन से पहले यह अवधि 4 से 10 साल थी, जैसे पहले Clause 13(1)(d)(iii) तक था — जो अब हटाया जा चुका है)* .*
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व्यावहारिक उदाहरण (Examples)
एक सरकारी अधिकारी पैमाइश या फील्ड बुक तैयार करने के नाम पर ₹10,000 रिश्वत लेते हुए पकड़ा गया—यह स्पष्ट रूप से Clause (i) के अंतर्गत आता है, क्योंकि इसमें “by corrupt means” से लाभ लिया गया।
यदि अधिकारी ने पद का दुरुपयोग करते हुए किसी को गलत फायदा पहुंचाया — जैसे नियमों को ताक पर रखकर — तो Clause (ii) लागू होता है।
Clause (iii) का उपयोग तब होता है जब कोई अधिकारी सार्वजनिक हित के विपरीत किसी तृतीय पक्ष को लाभ पहुंचाता है — और इस पर साफ़ सार्वजनिक हित का अभाव प्रमाणित होना चाहिए।
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अंतर तथा न्यायिक दृष्टिकोण
दोष सिद्धि (Burden of proof):
उच्च न्यायालय और SC के निर्णयों के अनुसार, धारा 13(1)(e) के अंतर्गत, “known sources of income” (विरोधाभासी संपत्ति) के मामले में सारा बोझ आरोपी पर होता है—प्रधान अभियोजन को नहीं।
प्रश्न केवल यह है कि क्या उस संपत्ति का मूल स्रोत बताया जा सकता है?
“मांग” का सिद्ध होना आवश्यक है:
केवल नोटों की मौजूदगी या अधिकारी के पास कैश पाया जाना पर्याप्त प्रमाण नहीं है—सामान्यतः “मांग” या “गरीबहत” जैसे तत्व भी चाहिए। सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट किया कि यह सुबूतों में शामिल होना चाहिए .
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सारांश
धारा मूल पाठ (संक्षेप) दंड सीमा प्रमुख बातें
13(1)(d)(i) अवैध/भ्रष्ट तरीकों से लाभ लेना 1–7 वर्ष + जुर्माना रिश्वत जैसे सीधे लाभ
13(1)(d)(ii) पद का दुरुपयोग कर लाभ 1–7 वर्ष + जुर्माना ताकत का गलत इस्तेमाल
13(1)(d)(iii) सार्वजनिक हित के बिना लाभ 1–7 वर्ष + जुर्माना तीसरे पक्ष को फायदा, सार्वजनिक हित का अभाव
बहुत अच्छा — अब मैं आपको भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम, 1988 की अन्य महत्वपूर्ण धाराओं की जानकारी दे रहा हूँ, विशेषकर:
1. धारा 13(1)(e) – आय से अधिक संपत्ति (Disproportionate Assets)
2. धारा 19 – अभियोग चलाने की स्वीकृति (Sanction for Prosecution)
3. धारा 20 – रिश्वत साबित करने के लिए धारणा (Presumption of Guilt)
4. धारा 8 और 9 – रिश्वत देने वाले व्यक्ति पर भी मुकदमा
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1. धारा 13(1)(e) – आय से अधिक संपत्ति (Disproportionate Assets)
👉 मूल बात:
कोई भी सरकारी कर्मचारी अगर अपनी वैध आय से अधिक संपत्ति रखता है, और उसका संतोषजनक स्रोत नहीं बता पाता, तो यह धारा लागू होती है।
> “A public servant is said to commit the offence of criminal misconduct, if he or any person on his behalf, is in possession of pecuniary resources or property disproportionate to his known sources of income, for which he cannot satisfactorily account.”
👉 सजा:
1 से 7 वर्ष की कैद + जुर्माना
👉 उदाहरण:
एक अधिकारी की 20 लाख रुपये की संपत्ति है, लेकिन आय का स्रोत केवल 5 लाख है और वह 15 लाख का संतोषजनक स्पष्टीकरण नहीं दे पाता—यह धारा लागू होगी।
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2. धारा 19 – अभियोजन की पूर्व स्वीकृति (Sanction for Prosecution)
👉 आवश्यकता:
किसी सेवारत सरकारी कर्मचारी के खिलाफ मुकदमा चलाने से पहले सरकार या सक्षम प्राधिकारी की स्वीकृति जरूरी होती है।
> “No court shall take cognizance of an offence… except with the previous sanction…”
👉 उद्देश्य:
यह धारा भ्रष्टाचार के नाम पर उत्पीड़न से बचाव के लिए बनाई गई है, ताकि ईमानदार अफसर डर के बिना कार्य कर सकें।
👉 परंतु:
सेवानिवृत्त कर्मचारियों के विरुद्ध धारा 19 लागू नहीं होती।
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3. धारा 20 – धारणा (Presumption of Guilt)
👉 स्थिति:
यदि कोई अधिकारी रिश्वत लेते हुए पकड़ा जाता है और नोट उसके पास पाए जाते हैं, तो कोर्ट यह मान लेती है कि वह घूस है, जब तक कि वह खुद न साबित कर दे कि यह कानूनी धन था।
> “Where it is proved that a public servant has accepted any gratification… it shall be presumed, unless the contrary is proved…”
👉 महत्व:
अभियोजन को सिर्फ रिश्वत का लेना साबित करना होता है, उसके बाद बचाव पक्ष को यह साबित करना होता है कि वह “उपहार” या वैध धन था।
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4. धारा 8 और 9 – रिश्वत देने वाला भी दोषी
धारा विवरण
धारा 8 यदि कोई व्यक्ति किसी सरकारी कर्मचारी को घूस देता है ताकि वह किसी कार्य में सहायता करे—तो यह अपराध है।
धारा 9 रिश्वत देने वाला यदि कोई “व्यवसायिक लाभ” पाने के लिए घूस देता है—वह भी दोषी माना जाता है।
👉 दंड:
3 से 7 साल तक की सजा + जुर्माना
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निष्कर्ष तालिका:
धारा विषय दोषी कौन सजा
13(1)(e) आय से अधिक संपत्ति कर्मचारी 1–7 साल
19 अभियोजन की अनुमति सरकारी सेवा में मुकदमा शुरू नहीं हो सकता
20 दोष की धारणा रिश्वत लेने वाला सजा तभी टलती है जब वह सफाई दे
8 / 9 रिश्वत देने वाला आम नागरिक/व्यवसायी 3–7 साल
चलिए अब सुप्रीम कोर्ट के दो महत्वपूर्ण केसों — Subramanian Swamy vs. Manmohan Singh (2012) और Disproportionate Assets मामलों में न्यायपालिका के दृष्टिकोण — को आसान भाषा में समझते हैं।
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1. Subramanian Swamy vs. Dr. Manmohan Singh (2012) – (§ 19 से जुड़ा मामला)
मुद्दा:
क्या कोई आम नागरिक (“व्यक्ति”) भ्रष्ट सरकारी अधिकारी के विरुद्ध न्यायालय में शिकायत दाखिल कर सकता है? और क्या § 19 — जो “अभियोजन के लिए पूर्व अनुमति” की बात करता है — के तहत अधिकारी को कितनी जल्दी निर्णय लेना चाहिए?
निर्णय (Supreme Court का रुख / रूल):
आम नागरिक को संविधान के तहत शिकायत दाखिल करने का अधिकार है — उनको भी न्याय प्रणाली में पहुँचने का अधिकार है। अदालत ने कहा कि भ्रष्टाचार को रोकने के लिए यह महत्वपूर्ण है।
§ 19 के तहत अभियोजन की अनुमति (sanction) देने वाले अधिकारी को तीन महीने के भीतर निर्णय लेना चाहिए, और अगर सलाह के लिए समय चाहिए तो अतिरिक्त एक महीने मिल सकता है। इससे ज़्यादा देरी स्वीकार्य नहीं होती।
यदि अनुमति देने या न देने में देरी होती है, तो वह न्याय व्यवस्था को कमजोर करता है और जनता का विश्वास गिरा सकता है।
सारांश:
नागरिक शिकायत दाखिल कर सकता है।
अनुमति संबंधी निर्णय समयबद्ध होना चाहिए।
लीडरशिप की जिम्मेदारी: भ्रष्टाचार को मंच देना नहीं।
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2. Disproportionate Assets (DA) केस – (भ्रष्टाचार अधिनियम के अंतर्गत)
धारा 13(1)(e) आधारित मामला:
यह धारा सरकारी सेवकों द्वारा अपनी आय से अधिक संपत्ति रखने पर आधारित होती है — जिसे “disproportionate assets” कहते हैं। इसमें आरोपी अधिकारी को यह साबित करना होता है कि उस संपत्ति का वैध स्रोत क्या था।
सुप्रीम कोर्ट ने क्या निर्देश दिए?
वैध अनुमति (sanction) की वैधता केवल मुकदमेबाजी के समय ज़ाँची जानी चाहिए — शुरुआती सुनवाई में नहीं। इसका मतलब, प्रारंभिक “डिस्चार्ज” चरण में अनुमति की अवैधता का आधार नहीं रखें।
स्वचालित अनुमति की निरस्तता (quashing) गलत है, जब तक कि वैसी अनुमति का पर्याप्त परीक्षण मुकदमे के दौरान नहीं किया गया हो।
उदाहरण केस: टमिलनाडु के पूर्व मंत्री की पत्नी (P. Nallammal) disproportionate assets में आरोपी थीं; इस पर सुप्रीम कोर्ट ने विभाजित (split) निर्णय सुनाया, जो इस क्षेत्र की जटिलता को दर्शाता है।
इसलिए:
डिस्चार्ज (जांच प्रारंभ) चरण में केवल अनुमति की वैधता को आधार बनाकर मामला बंद नहीं किया जा सकता—यह न्यायालय की दृष्टि से उसे रोकना उचित नहीं।
मुकदमे की सही प्रक्रिया में ही अनुमति की वैधता को परखा जाना चाहिए।
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संक्षेप सारांश तालिका
केस विषय निर्णय (Supreme Court)
Swamy vs. Manmohan Singh § 19 – नागरिक शिकायत और अनुमति की समयबद्धता नागरिक शिकायत कर सकता है; अनुमति निर्णय 3+1 महीने में हो
DA मामलों में अनुमति की वैधता § 13(1)(e) – disproportionate assets अनुमति की वैधता केवल ट्रायल में जांची जाए; पूर्व में मामला बंद ।
बिल्कुल — नीचे आपके लिए सुप्रीम कोर्ट के दो अहम निर्णयों का सरल और स्पष्ट विवरण प्रस्तुत है, हिंदी में:
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1. Subramanian Swamy vs. Manmohan Singh (2012) – §19 के तहत “Sanction for Prosecution” की समयसीमा
मुकदमे की पृष्ठभूमि
जनता पार्टी नेता डॉ. सुब्रमण्यम स्वामी ने पूर्व संचार मंत्री ए. राजा के खिलाफ भ्रष्टाचार के आरोपों के मद्देनजर प्रधानमंत्री कार्यालय (PMO) से मुकदमा चलाने की पूर्व स्वीकृति (sanction) चाही, लेकिन उसे लंबे समय तक कोई जवाब नहीं मिला।
सुप्रीम कोर्ट का निर्णय और निर्देश
अदालत ने स्पष्ट किया कि एक नागरिक के पास भी यह अधिकार है कि वह किसी सार्वजनिक अधिकारी के खिलाफ भ्रष्टाचार के आरोपों पर मुकदमा चलाया जाए। यह संवैधानिक अधिकार है।
सेवानिवृत्त अधिकारी भी मुकदमे के दायरे में आते हैं, और उनके खिलाफ उचित कार्रवाई की जा सकती है, क्योंकि §19 लागू होती है उस समय जब उन्होंने वह पद संभाला था।
सुप्रीम कोर्ट ने समयबद्धता की आवश्यकता पर जोर दिया:
3 महीने के भीतर केस के लिए sanction देना अनिवार्य है।
यदि इस दौरान वकील जनरल (AG) या अन्य कानूनविद से परामर्श करना हो, तो अतिरिक्त 1 माह की छूट दी जा सकती है।
यदि 4 महीने में भी निर्णय न लिया गया, तो स्वचालित रूप से sanction मान लिया जाएगा और मुकदमा आगे बढ़ सकता है।
सारांश तालिका
तत्व विवरण
अधिकार नागरिक भी भ्रष्ट अधिकारी के खिलाफ शिकायत कर सकता है
समयसीमा 3 महीनों में निर्णय, +1 माह परामर्श के लिए
परिणाम 4 माह में निर्णय न होने पर sanction माना जाएगा
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2. State of Tamil Nadu vs. R. Soundirarasu (2022) – §13(1)(e) के तहत “Disproportionate Assets” और बोझ (Burden of Proof)
मामले का परिचय
आर. साउंडिरासु, एक वाहन निरीक्षक, पर उनकी आय के अनुपात में अधिक संपत्ति रखने का आरोप था। आरोप था कि उनकी पत्नी और ससुराल वालों के नाम पर भी कई संपत्तियाँ थी, जो उनकी ज्ञात आय से मेल नहीं खाती थीं।
मुख्य प्रश्न
जब अभियोजन यह साबित कर दे कि आरोपी के पास अनुपातहीन संपत्ति है, तो क्या आरोपी को उसे संतोषजनक तरीके से स्पष्ट करना ज़रूरी है? और इसका बोझ किस पर है?
सुप्रीम कोर्ट का फैसला
अभियोजन को यह साबित करना होता है कि:
1. आरोपी एक सार्वजनिक अधिकारी है
2. उसके पास संपत्ति/संसाधन हैं (यह पता होना चाहिए)
3. उसकी ज्ञात आय (Prosecution को ज्ञात हो) क्या थी
4. यह संपत्ति उसकी आय के अनुपात में अधिक है
— यदि यह चारों वस्तुएँ साबित हो जाती हैं, तो §13(1)(e) लागू हो जाती है।
उसके बाद “बोझ” आरोपी पर आ जाता है कि वह यह बताए कि यह संपत्ति उसका वैध स्रोत है। यह बोझ भारी नहीं है—उसे “preponderance of probability” (संभावनाओं का पूर्वाग्रह) के स्तर पर स्पष्ट करना होता है, न कि “बियॉन्ड ऑल रीजनबल डाउट” तक।
सुप्रीम कोर्ट ने यह भी स्पष्ट किया कि initial stages (जैसे discharge या framing of charge) में जांच करना या mini-trial करना नहीं चाहिए—सिर्फ अभियोजन के द्वारा प्रस्तुत सुबूतों को माना जाना चाहिए। आरोपी के दस्तावेजों पर उस समय निर्णय नहीं लिया जाना चाहिए।
सारांश तालिका
तत्व विवरण
प्रारंभिक बोझ अभियोजन पर (सार्वजनिक सेवा, संपत्ति, आय, अनुपातहीनता)
अपराध सिद्धि का स्तर अभियोजन साबित करे, फिर आरोपी को “preponderance of probability” पर स्पष्ट करना
न्यायिक प्रक्रिया प्रारंभिक चरण में mini-trial या बचाव दस्तावेजों का मूल्यांकन न हो
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इन निर्णयों के माध्यम से सुप्रीम कोर्ट ने यह सुनिश्चित किया है कि भ्रष्टाचार से जुड़े मामलों में नागरिकों का अधिकार, समयबद्ध कार्रवाई, और प्रक्रियागत निष्पक्षता बनी रहे।
J. Jayalalithaa के Disproportionate Assets (DA) केस का पूरा मार्गदर्शन सरल भाषा में प्रस्तुत है — इसमें सुप्रीम कोर्ट के निर्णय, उच्च न्यायालय की कार्रवाई और इसके व्यापक प्रभाव शामिल हैं:
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J. Jayalalithaa – Disproportionate Assets (DA) Case
मुकदमे का पूर्ण विवरण:
शुरूआत (1996)
Subramanian Swamy ने जयललिता और उनके सहयोगियों के खिलाफ Disproportionate Assets की शिकायत दर्ज करवाई, जिसमें आरोप था कि उन्होंने 1991–96 के कार्यकाल में आय से कहीं अधिक संपत्ति इकट्ठा कर ली थी। आरोपित संपत्ति में 66.65 करोड़ रुपये की अनुमानित संपत्ति, बैंक जमा, लग्जरी गाड़ियाँ, गहने और अन्य मूल्यवान सामग्री शामिल थी।
केस 1996 में शुरू हुआ और इसे बाद में न्यायिक निष्पक्षता सुनिश्चित करने के लिए चैंन्नई से बेंगलुरु स्थानांतरित किया गया।
Special Court का निर्णय (27 सितंबर 2014)
बेंगलुरु की विशेष अदालत ने जयललिता, सासिकला, इलावरसी और सुदhakaran को दोषी करार दिया।
उन्हें 4 साल कैद तथा जयललिता को ₹100 करोड़, बाकी तीनों को ₹10 करोड़ जुर्माना भुगतान का आदेश दिया गया।
इसके परिणामस्वरूप जयललिता Chief Minister पद से हटाई गईं और उन्हें व विधानसभा से अयोग्य घोषित कर दिया गया।
High Court की कार्यवाही (11 मई 2015)
कर्नाटक उच्च न्यायालय ने विशेष अदालत के फैसले को पलटकर जयललिता और अन्य तीनों को बरी कर दिया।
न्यायाधीश ने फैसला सुनाते हुए यह कहा कि वास्तविक DA केवल ₹2.82 करोड़ (~8.12%) थी — जो “स्वीकार्य सीमा” के भीतर थी और अपराध साबित नहीं हुआ।
Supreme Court द्वारा पुनः परीक्षण (14 फ़रवरी 2017)
सुप्रीम कोर्ट ने उच्च न्यायालय के फैसले को रद्द कर दिया, विशेष अदालत के दोषसिद्धि को पुनः बहाल किया।
सासिकला और अन्य दो पर दोषसिद्धि को बरकरार रखा गया और उन्हें चार साल कैद की सजा का सामना करना पड़ा।
जयललिता के खिलाफ मुकदमा मंडलन (Abated) माना गया क्योंकि वह पहले ही दे चुकी थीं, लेकिन उनके संपत्तियों पर जुर्माना लगाया गया।
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संक्षेप सारांश तालिका
चरण विवरण
शिकायत और ट्रायल की शुरुआत 1996 में Subramanian Swamy द्वारा शिकायत दर्ज, ट्रायल बेंगलुरु में
विशेष अदालत (2014) दोषसिद्धि—4 साल जेल + जुर्माना, जयललिता को अयोग्य घोषित
उच्च न्यायालय (2015) बरी—DA को केवल 8.12% माना गया, न्याय “स्वीकार्य सीमा” में
सुप्रीम कोर्ट (2017) विशेष अदालत का फैसला बहाल, सासिकला को दोषसिद्धि, जयललिता का मामला मंडलित
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केस का महत्व और मुख्य पहलू:
1. डोक्यूमेंट्स और सामग्री की व्यापकता: केस में बहुत सारी संपत्तियां शामिल थीं — संपत्ति, बैंक जमा, शैल कंपनियाँ, लग्जरी वस्तुएं आदि, जिनकी जाँच बहुत चुनौतीपूर्ण थी।
2. लंबा कानूनी संघर्ष: मामला लगभग 18–21 साल तक चला, जिसमें कई बार ट्रायल स्थान बदला गया, वकील बदले, और मुकदमा विभिन्न कोर्टों में चला।
3. राजनीतिक प्रभाव:
प्रथम बार भारत में कोई सत्ताधारी मुख्यमंत्री दोषसिद्ध हो कर पद से हटा।
बरी होने पर उन्होंने वापस मुख्यमंत्री पद संभाला, और DA केस राजनीतिक इतिहास में महत्वपूर्ण मोड़ बन गया।
4. कानूनी मानक पर बहस:
“स्वीकार्य सीमा” क्या है?
अनुपातहीन संपत्ति की गणना कैसे हो?
सुप्रीम कोर्ट ने दिखाया कि प्रारंभिक निर्णय प्रक्रिया में तार्किक अनुशासन बनाए रखना कितना आवश्यक है।
विशेषकर Disproportionate Assets (DA) मामलों में burden of proof, और Sanction और presumption से जुड़े दृष्टिकोण पर:
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1. Disproportionate Assets मामलों में बोझ (Burden of Proof) – सुप्रीम कोर्ट की स्पष्ट व्याख्या
State of Tamil Nadu vs. R. Soundirarasu (2022)
सुप्रीम कोर्ट ने यह स्पष्ट किया कि:
प्रारंभिक बोझ (initial burden) अभियोजन पर रहता है—उसे यह साबित करना होगा कि आरोपी के पास संपत्ति उसकी ज्ञात आय से अनुपातहीन है।
यदि अभियोजन यह साबित कर देता है, तो अगला बोझ आरोपी पर आता है, जिसे “preponderance of probability” — यानी संतोषजनक और संभावित कारण — के स्तर पर स्पष्ट करना होता है कि संपत्ति का स्रोत वैध है.
रिपोर्टिंग चरण जैसे ‘discharge’ में mini-trial या दस्तावेजों का विस्तृत मूल्यांकन नहीं किया जाना चाहिए; प्रारंभिक स्तर पर केवल अभियोजन द्वारा प्रस्तुत सबूतों पर भरोसा किया जाता है।
पूर्व निर्णय – State of Maharashtra vs. W.R. Kaidalwar (1981)
इस मामले में सुप्रीम कोर्ट ने निर्णय दिया कि अभियोजन पर यह साबित करने का बोझ होता है कि संपत्ति disproportionate है; इसके पश्चात् आरोपी को संतोषजनक स्पष्टीकरण देना आवश्यक होता है। उस स्पष्टीकरण का स्तर “preponderance of probability” ही होना चाहिए, न कि “beyond reasonable doubt”।
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2. Section 19: Sanction for Prosecution – संवैधानिक एवं न्यायिक दृष्टिकोण
Sanction देने का अधिकार सरकार या संबंधित उच्च पदाधिकारी के पास होता है ताकि ईमानदार अधिकारियों को निरंतर उत्पीड़न से बचाया जा सके।
Governor — उदाहरणस्वरूप, मुख्यमंत्री जैसे संवैधानिक पदों के लिए — स्वतंत्र रूप से निर्णय दे सकता है, न कि केवल मंत्रिपरिषद की सलाह पर.
हालांकि, इसका judicial review संभव है, जिससे न्यायिक व्यवस्था में संतुलन बना रहे।
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3. अन्य संबंधित सुप्रीम कोर्ट के प्रावधान (rebuttable presumption)
State of Madras vs. A. Vaidyanatha Iyer केस में सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट किया कि जब कानून में एक rebuttable presumption (उलटने योग्य धारणा) बनाई गई है—जैसे कि जहाँ Section 4 (अब Section 20) के अंतर्गत अतिथि को “rishwat स्वीकार कर लिया” माना जाता है—तो न्यायालय को वह presumption उठाना अनिवार्य होता है, जब तक कि आरोपी उसे अस्वीकृत न कर दें।
यानी, यदि रिश्वत लेते हुए कोई देखा जाता है, तो कोर्ट इसे कानूनी रूप से “ली गई रिश्वत” ही मानेगी, जब तक कि आरोपी इसे वैध साबित ना करे।
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4. संक्षिप्त सारांश तालिका
विषय सुप्रीम कोर्ट का दृष्टिकोण
Disproportionate Assets में बोझ अभियोजन पर प्रारंभिक बोझ; आरोपी को “preponderance of probability” पर स्पष्टीकरण देना होता है
प्रारंभिक चरण (discharge) इसमें mini-trial नहीं, अभियोजन के सबूत प्राथमिकता पर
Sanction (धारा 19) सत्ता संतुलन के लिए आवश्यक—Governor स्वतंत्र, निर्णय judicially reviewable
Presumption (धारा 20/अन्य) कोर्ट को presumption लेना होगा; आरोपी को उसे अस्वीकृत करना होगा